जब अभियुक्त के पास ज़मानतदार नहीं हो तब क्या करें
जाने 445 सीआरपीसी, के क्या है प्रावधान
संपूर्ण भारत में कोई अभियुक्त किसी अन्य स्थान पर निवास करता है और किसी अन्य स्थान पर कोई अपराध घटित हो जाता है, जहां अपराध घटित होता है वहां अभियुक्त पर अन्वेषण ( Investigation), जांच (Inquiry) और विचारण (Trial) की कार्यवाही होती है। ऐसे में दूरस्थ स्थानों के व्यक्तियों को भी अभियुक्त बनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति कलकत्ता में रहता है और उसे चेन्नई में किसी अपराध में अभियुक्त बनाकर कार्यवाही की जा रही है।
ज़मानत नियम है तथा जेल अपवाद है। किसी भी व्यक्ति को जब किसी प्रकरण में अभियुक्त बनाया जाता है तो न्यायालय का प्रयास होता है कि उस व्यक्ति को विचाराधीन (Under trial) रहने तक ज़मानत पर छोड़ा जाए। कभी-कभी ऐसी परिस्थितियों का जन्म होता है कि अभियुक्त के पास कोई ज़मानतदार (Surety) नहीं होता है तथा अभियुक्त अकेला पड़ जाता है। ऐसी स्थिति में अभियुक्त को न्यायालय द्वारा जमानत के आदेश दे दिए जाने के उपरांत भी कारागार में रहना होता है क्योंकि अभियुक्त को जितनी राशि के बंधपत्र पर ज़मानतदार (प्रतिभू) सहित पेश करने को कहा जाता है वह पेश नहीं कर पाने में असमर्थ होता है।
दूर के स्थानों के रहने वाले या फिर ऐसे व्यक्ति जिनके अपने कोई मित्र और संबंधी ज़मानत नहीं लेते हैं तथा प्रकरण में प्रतिभू नहीं बनते है, उनके लिए ज़मानतदार प्रस्तुत करना अत्यंत कठिन होता है। भारतीय न्याय व्यवस्था अत्यंत समृद्ध और उदार है। इस विकट परिस्थिति से निपटने हेतु दंड प्रक्रिया संहिता में भी धारा 445 के अंतर्गत स्पष्ट प्रावधान दिए गए हैं। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने अभिषेक कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य के हाल ही के एक प्रकरण में जस्टिस अनूप चीत्कारा ने कहा कि अभियुक्त के पास ज़मानतदार नहीं हो तब क्या करें, क्या है प्रावधान संपूर्ण भारत में कोई अभियुक्त किसी अन्य स्थान पर निवास करता है और किसी अन्य स्थान पर कोई अपराध घटित हो जाता है, जहां अपराध घटित होता है वहां अभियुक्त पर अन्वेषण ( Investigation), जांच (Inquiry) और विचारण (Trial) की कार्यवाही होती है। ऐसे में दूरस्थ स्थानों के व्यक्तियों को भी अभियुक्त बनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति कलकत्ता में रहता है और उसे चेन्नई में किसी अपराध में अभियुक्त बनाकर कार्यवाही की जा रही है।ज़मानत नियम है तथा जेल अपवाद है। किसी भी व्यक्ति को जब किसी प्रकरण में अभियुक्त बनाया जाता है तो न्यायालय का प्रयास होता है कि उस व्यक्ति को विचाराधीन (Under trial) रहने तक ज़मानत पर छोड़ा जाए। कभी-कभी ऐसी परिस्थितियों का जन्म होता है कि अभियुक्त के पास कोई ज़मानतदार (Surety) नहीं होता है तथा अभियुक्त अकेला पड़ जाता है। ऐसी स्थिति में अभियुक्त को न्यायालय द्वारा जमानत के आदेश दे दिए जाने के उपरांत भी कारागार में रहना होता है क्योंकि अभियुक्त को जितनी राशि के बंधपत्र पर ज़मानतदार (प्रतिभू) सहित पेश करने को कहा जाता है वह पेश नहीं कर पाने में असमर्थ होता है। दूर के स्थानों के रहने वाले या फिर ऐसे व्यक्ति जिनके अपने कोई मित्र और संबंधी ज़मानत नहीं लेते हैं तथा प्रकरण में प्रतिभू नहीं बनते है, उनके लिए ज़मानतदार प्रस्तुत करना अत्यंत कठिन होता है। भारतीय न्याय व्यवस्था अत्यंत समृद्ध और उदार है। इस विकट परिस्थिति से निपटने हेतु दंड प्रक्रिया संहिता में भी धारा 445 के अंतर्गत स्पष्ट प्रावधान दिए गए हैं। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने अभिषेक कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य के हाल ही के एक प्रकरण में जस्टिस अनूप चीत्कारा ने कहा कि- “ज़मानत के लिए गिड़गिड़ाना तथा किसी व्यक्ति से अपने प्रकरण में प्रतिभू बनने हेतु निवेदन करना अपनी गरिमा एवं प्रतिष्ठा को ठेंस पहुंचाने जैसा है। यह गरिमा एवं प्रतिष्ठा किसी व्यक्ति को संविधान के अंतर्गत दिए गए मूल अधिकारों में निहित है। यदि ऐसी गरिमा और प्रतिष्ठा पर कानून के किसी नियम के कारण कोई प्रहार हो रहा है तो ऐसी परिस्थिति में व्यक्तियों के इस अधिकार को संरक्षित किए जाने की आवश्यकता है तथा न्यायालय को इस बात को बढ़ावा देना चाहिए कि उन मामलों में जिनमें अभियुक्त कोई प्रतिभू प्रस्तुत नहीं कर पा रहा है कोई राशि निक्षेप (डिपॉजिट) करवा लें। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 445 के अंतर्गत इस संबंध में संपूर्ण प्रावधान दिए गए हैं।”
क्या है सीआरपीसी की धारा 445 दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 445 के शब्दों के अनुसार- “जब किसी व्यक्ति से किसी न्यायालय या अधिकारी द्वारा प्रतिभू सहित या रहित बंधपत्र निष्पादित करने की अपेक्षा की जाती है तब वह न्यायालय या अधिकारी उस दशा में जब वह बंधपत्र सदाचार के लिए नहीं है, उसे ऐसे बंधपत्र के निष्पादन के बदले में जितनी धनराशि के सरकारी वचन पत्र वह न्यायालय या अधिकारी नियत करें निक्षेप करने की अनुज्ञा दे सकता है।” सीआरपीसी (Crpc) 1973 की यह धारा इस बात का स्पष्ट उल्लेख कर रही है कि यदि कोई व्यक्ति मुचलके के बजाय निक्षेप (Deposit) देना चाहता है तो न्यायालय उसे ऐसा करने की अनुज्ञा दे सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 445 अभियुक्त को अनुज्ञा दे रही है कि वह प्रतिभू सहित यह रहित बंधपत्र के बदले में न्यायालय और पुलिस अधिकारी दोनों ही के द्वारा निर्धारित रकम या सरकारी नोटों की राशि का निक्षेप कर सकता है। इस धारा का यह अपवाद भी है कि सदाचरण के लिए बंधपत्र की दशा में यह उपबंध लागू नहीं होता है। यह एक हितकारी प्रावधान है ताकि ऐसा अभियुक्त जो उस स्थान पर अजनबी है, जहां उसकी गिरफ्तारी की जा रही है, स्वयं को गिरफ्तारी से बचा सके तथा ज़मानतदार नहीं होने पर कोई निक्षेप दे सके। एडमंड स्चुस्टर बनाम सहायक कलेक्टर कस्टम्स एआईआर 1967 पंजाब 189 के मामले में कहा गया है कि यह धारा की व्यवस्था केवल अभियुक्त के प्रति ही लागू होगी तथा प्रतिभूओ के लिए इसका प्रयोग नहीं किया जा सकेगा। अर्थात इस धारा के अंतर्गत यह नहीं हो सकता कि कोई प्रतिभू जिसके पास कोई निश्चित धनराशि का कोई साक्ष्य नहीं हो तो वह प्रतिभू नकद धनराशि सरकार के वचन पत्र में जमा कर दे। ज्ञातव्य है कि किसी प्रतिभू को उस समय जब वह किसी अभियुक्त की बंधपत्र पर जमानत लेता है तो ऐसी स्थिति में उसे न्यायालय द्वारा जमानत के संबंध में दिए गए आदेश की रकम के जितने साक्ष्य प्रस्तुत करना होते हैं। जैसे यदि किसी किसी अभियुक्त को ₹100000 के बंधपत्र पर जमानत दी जा रही है तो ऐसे अभियुक्त के प्रतिभू को ₹100000 की धनराशि का कोई साक्ष्य न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना होता है। लक्ष्मण लाल बनाम मूलशंकर 1908 बॉम्बे के पुराने मामले में यह कहा गया है कि इस धारा में प्रयुक्त शब्द बदले में से पर्याय के निक्षेप की जाने वाली नकद रकम बंधपत्र के बदले में होगी ना कि बंधपत्र में उल्लेखित राशि के अतिरिक्त होगी। इस धारा का मुख्य उद्देश्य ऐसे अभियुक्त को रियायत प्रदान करना है जो प्रतिभू प्रस्तुत करने में असमर्थ है। किस धारा के अंतर्गत न्यायालय कोई भी ऐसी आयुक्तियुक्त राशि नहीं मांगता है, जिस राशि को कोई अभियुक्त सरकारी वचन पत्र में जमा नहीं कर सकता है। किसी भी अभियुक्त की आर्थिक स्थिति को देखते हुए ही उससे सरकारी वचन पत्र में किसी राशि को जमा करने हेतु कहा जाता है। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 445 के अंतर्गत न्यायालय को यह शक्ति अपने विवेकाधिकार के अधीन प्राप्त हैं। यदि न्यायालय चाहे तो ही इस शक्ति का प्रयोग करेगा। यदि न्यायालय की दृष्टि में किसी अभियुक्त से बंधपत्र लिया जाना आवश्यक है तथा किसी अभियुक्त को बगैर प्रतिभू के नहीं छोड़ा जा सकता तो न्यायालय इस धारा के अंतर्गत अभियुक्त को राहत प्रदान नहीं करता है। अभिषेक कुमार के हाल ही के मुकदमे में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने न्यायाधीशों को इस प्रकार के निक्षेप पर अभियुक्त को छोड़े जाने हेतु बल देते हुए निर्देशित किया है।